एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (AES) यानि ‘चमकी’ बुखार के कारण बिहार में 136 से अधिक बच्चों की मौत ने एक बार फिर हमारे स्वास्थ्य संबंधी बुनियादी ढांचे के अक्सर भूल गए विषय को सामने ला दिया है।

कम से कम 200 रोगियों, जिनमें से कई 10 वर्ष से कम उम्र के हैं, अभी भी दो अस्पतालों में इलाज किया जा रहा है। राज्य के अधिकारियों ने कहा है कि हाइपोग्लाइकेमिया (hypoglycaemia), या low blood sugar के कारण कई पीड़ितों की मृत्यु हो गई थी।

पिछले सात दशकों में, केंद्र और राज्यों दोनों में क्रमिक सरकारों ने हमारे गांवों और जिला स्तर पर प्राथमिक और माध्यमिक स्वास्थ्य सुविधाएं बनाने में बहुत कम राशि का निवेश किया है। भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का केवल 1.5% स्वास्थ्य सेवा पर खर्च करता है। इसकी तुलना संयुक्त राज्य अमेरिका सरकार द्वारा जीडीपी पर खर्च किए गए 9.5% से करें। वे इसे कैसे सक्षम करते हैं?

राज्य और केंद्र सरकार के स्वास्थ्य विभागों को दोषी ठहराया जाना चाहिए। उनकी रोकथाम की रणनीति के प्रति अज्ञानता पिछले कई दशकों से खराब रही है। राज्य के सरकारी विभाग के आंकड़ों की माने तो इस बार दिमागी बुखार ने बिहार के 16 जिलों में 600 से अधिक बच्चों को पीड़ित किया है, जिनमें से 136 ने इस महीने की शुरुआत से अपनी जान गंवाई है|

बिहार में इंसेफेलाइटिस से होने वाली मौतों को लीची खाने से हुए ब्रेन फीवर से जोड़ा जा सकता है लेकिन मुख्य कारण कुपोषण है| मेडिकल रिपोर्ट्स में कहा जा रहा है कि कच्ची और अधपकी लीची खाने से बच्चों को यह बीमारी हो रही है। लेकिन एक सच यह भी है कि इस बीमारी की चपेट में सबसे ज्यादा गरीब बच्चे ही आ रहे हैं। अगर दिमागी बुखार से होने वाली मौतों की रिपोर्ट को देखें तो पता चलता है कि अधिकांश बच्चे कुपोषण या खाली पेट रहने की वजह से इसकी चपेट में आए थे।

20 वर्षों तक, चिकित्सक यह निर्धारित नहीं कर सके थे कि तीव्र मस्तिष्क सूजन के कारण होने वाली बीमारी एक संक्रमण है या गर्मी की लहरों के कारण हुआ बुखार? 2017 में इंडो -यूएस टीम ने पुष्टि की कि लीची फल रहस्यमय मौतों के लिए जिम्मेदार था। इसके अनुसार लीची में हायपोग्लायसिन-ए (hypoglycin A) और मेथिलीन साइक्लोप्रोपाइल ग्लाइसीन (methylene cyclopropyl glycine) होते हैं, जो कुपोषित बच्चों के खून में शुगर का लेवल बहुत कम कर देते हैं| यह खतरा तब और बढ़ जाता है जब कुपोषित बच्चे अपनी भूख मिटने के लिए कच्चे या अधपकी लीची बागानों से उठाकर खा लेते हैं और खली पेट सो जाते हैं|

‘चमकी’ बुखार नामक बीमारी मुज़फ़्फ़रपुर क्षेत्र में नई नहीं है, यह एक दशक से थी और इसके लिए के प्रयासों के लिए राज्य और केंद्र सरकार की तरफ से वादे भी किये गए थे| लेकिन राज्य सरकार ने इस प्रकोप के बारे में चेतावनी को पूरी तरह से नजरअंदाज किया है | जो अस्पताल काम कर रहे हैं वे
क्षीण स्थिति में हैं और बच्चों को बेड साझा करना पड़ता है। बिहार के छोटे गाँवों में मध्याह्न भोजन योजनाएँ तक नहीं हैं। जनवरी 2019 में मिड-डे मील के रसोइए 40 दिन की हड़ताल पर थे। इससे पता चलता है कि सरकार बच्चों की कितनी परवाह करती है। बच्चों को कोई ओआरएस, दवाई, दूध नहीं दिया जाता है।अस्पताल में आम ज़रूरतों को मोहिया करवाने के लिए पत्रकारों को सरकार पर दबाव डालना पद रहा है, आंकड़े 100 से पार हुए, नामी पत्रकारों ने अस्पतालों के जायज़े लिए और उनका सच अपने चैनल पे दिखाया तो सरकार ने आँखें खोली | अब आम वार्डस में कूलर्स भी लग गए हैं और ICU में AC भी|

इस स्थिति को रोका जा सकता है अगर-

-रात में एक बच्चे को खिलाने के बारे में व्यापक जागरूकता और शिक्षा पर जोर दिया जाये

-संकेतों और लक्षणों के बारे में जागरूकता, ताकि बच्चे को सुनहरे घंटे में इलाज किया जा सके और मृत्यु दर में कटौती की जा सके

-यदि प्रभावित क्षेत्रों में शाम का भोजन शुरू किया गया है तो मिड डे मील जैसी उचित नीति

-सरकारी अस्पतालों के आईसीयू और वार्डों में पर्याप्त संख्या में बिस्तर के साथ-साथ पर्याप्त प्रशिक्षित कर्मियों की नियुक्ति से सुसज्जित हो

बच्चों को लीची फल का सेवन करने से रोकना और यह सुनिश्चित करना कि बच्चे खाली पेट बिस्तर पर न जाएं, बच्चों को इस गंभीर बीमारी से आसानी से रोका जा सकता है।

हालाँकि यह प्रकोप हर साल होता है। राज्य सरकार क्यों सो रही थी? केंद्र सरकार की ओर से कोई निर्देश क्यों नहीं दिया गया? हर बार राज्य सरकारें और केंद्र सरकार घोषणा करती हैं कि वे बीमारी का कारण खोजेंगी और इस महामारी प्रकार की बीमारी पर पूर्ण नियंत्रण के लिए एक शोध होगा। लेकिन शोध का कोई परिणाम और उपचार की विधि भी अब उपलब्ध नहीं है। ब्रह्मास्त्र की ओर से दोनों सरकारों को अनुरोध है कि कृपया इस मामले पर गंभीरता से कुछ करें।