majdoorभारत को एक जनतन्त्र कहा जाता है और 120 करोड़ आबादी वाले इस जनतन्त्र में 100 सबसे अमीर लोगों की कुल सम्पत्ति पूरे देश की कुल वार्षिक उत्पादन का एक चौथाई से भी अधिक हिस्सा है। इस तरह सबसे बड़े जनतन्त्र में सारी शक्ति ऊपर के कुछ लोगों की जेब तक सीमित है। इकोनॉमिक टाइम्स के अनुसार विकास की दौड़ में मध्यवर्ग की एक खायी-अघायी आबादी भी शामिल है, जो 16 करोड़ यानि कुल आबादी का 13.1 प्रतिशत हिस्सा है (इकोनामिक टाइम्स 6/2/2011)। मध्यवर्ग का यह हिस्सा विश्व पूँजीवादी कम्पनियों को अनेक विलासिता के सामानों को बेचने के लिये बड़ा बाज़ार मुहैया कराता है। समाज का यह हिस्सा अमानवीय स्थिति तक माल अन्ध भक्ति का शिकार है, जिसमें टीवी और अखबारों में दिखाये जाने वाले विज्ञापन उन्हें कूपमण्डूक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। करोड़ों मेहनत करने वाले लोगों के ख़ून पसीने से पैदा होने वाले सामानों पर ऐश करने वाले समाज के इस हिस्से को देश की 80 प्रतिशत जनता की ग़रीबी और बर्बादी तथा दमन-उत्पीड़न से कोई खास फ़र्क नहीं पड़ता, बल्कि यह समाज के दबे कुचले हिस्से को देश की प्रगति में बाधा मानता है। इसी मध्यवर्ग को अपने माल के एक बाजार के रूप में देखते हुए अमरीकी और यूरोपीय उद्योगपति बड़ी खुशी के साथ इसकी व्याख्या करते हैं कि यहाँ उनके उत्पादित माल और ऑटोमोबाइल के लिये एक बड़ा बाज़ार मौजूद है। एक रिपोर्ट के अनुसार 45 करोड़ भारतीय ग़रीबी रेखा के नीचे जा रहे हैं, जिसका अर्थ है कि वे भुखमरी की कगार पर बस किसी तरह ज़िन्दा हैं। इन ग़रीबों की प्रति दिन की आय 12 रु से भी कम होती है। इतनी आमदनी मे कोई मूलभूत सुविधा मिलना तो बहुत दूर की बात है, बल्कि एक व्यक्ति को किसी तरह सिर्फ़ जिन्दा बने रहने के लिये भी संघर्ष करना पड़ता है, और वह भी तब जब यह मान लिया जाये कि वह व्यक्ति कभी बीमार नहीं पड़ेगा और जानवरों की तरह सभी मौसम बर्दाश्त कर लेगा! भारत के पूँजीवादी जनतन्त्र में हो रहे विकास की असली तस्वीर यही है, जहाँ जनता की बर्बादी और मेहनत करने वालों के अधिकारों को छीनकर देश के कुछ मुट्ठीभर उद्योगपतियों, अमीरों, नेताओं, सरकारी नौकरशाहों को आरामतलब ज़िन्दगी मुहैया कराई जा रही है, और देशी विदेशी पूँजीपतियों को मुनाफ़ा निचोड़ने के लिये खुली छूट दे दी गई है। इस असमानता से मुक्ति के लिए सबसे पहली जरूरत मजदूर वर्ग के जागरूक होने की है। जिस दिन देश का मजदूर जागरूक हो गया और अपने अधिकारों के लिए खुद आवाज उठाने लगा, इस असमानता की उलटी गिनती शुरू हो जाएगी।