_CONSTRUCTION__1447055g

ऐसा लगता है कि मानों हम 1792 के पहले फ्रांस में शोषण के जाल में फंसे मजदूरों को एक बार फिर देखने की स्थिति में पहुंच रहे हैं। मजदूरों का यह नीति आधारित शोषण भारत में अलग-अलग स्तरों पर हो रहा है, ठेकेदार और निजी क्षेत्र को तो एक बार अलग रखकर देखते हैं तो यह भी पता चलता है कि भारत सरकार की नीतियाँ और व्यवस्था भी उन्हें समानता और शोषण से मुक्ति का अधिकार प्रदान नहीं कर रही है। भारत के अलग-अलग राज्यों में एक जैसे काम के लिए तय की गई मजदूरी में भारी अंतर दिखाई पड़ता है और तो और अफसोसजनक सच्चाई यह है कि इसी न्यूनतम मजदूरी को हासिल करने के लिये सरकार मजदूरों के लिये इतने कड़े लक्ष्य तय करती रही है कि उन्हें औसत से ज्यादा शारीरिक श्रम करने के लिए बाध्य होना पड़ रहा है। आज तक मध्य प्रदेश जैसे कई राज्यों में समय और गति के वह अध्ययन नही कराये गये हैं जिनसे तय होता है कि एक व्यक्ति निर्धारित समय में श्रम करके कितना काम पूर्ण कर सकता है। उतना ही काम एक श्रमिक के लिये अधिकतम लक्ष्य के रूप में निर्धारित किया जाना चाहिये। वास्तविकता में जो काम मजदूरो से करवाये जा रहे हैं वे उनकी क्षमताओं से कहीं ज्यादा नजर आते हैं।

18 वीं शताब्दी में फ्रांसीसी क्रांति ने कृषि दासों को मुक्त किया। यह वही दौर था जब मजदूरों के लिये न तो श्रम करने के समय की न तो कोई सीमा तय थी, न ही यह तय था कि उन्हे कम से कम कितनी मजदूरी (कहें कि न्यूनतम मजदूरी) मिलेगी। हर तरह से मजदूर सामंतो, जमींदारों और व्यापारियों के शोषण के षिकार होते रहे। इस शोषण ने असंख्य मजदूरों की जानें तक ले लीं। फिर जब श्रमिक वर्ग (या कहें कि मेहनतकशों की दुनिया) में असंतोष फैला तब ब्रिटेन में पहली बार 1896 में फैक्टरी कानून बनाया गया जिसमें यह खाका खींचा गया कि एक मजदूर को एक सप्ताह या एक दिन में कितने घंटे श्रम करना होगा। इसी के साथ काम के एवज में न्यूनतम मजदूरी का विचार भी अस्तित्व में आया। भारत तक न्यूनतम मजदूरी की बात आने में आधी शताब्दी से ज्यादा समय लगा और 1948 में न्यूनतम मजदूरी का कानून बना।

उल्लेखनीय है कि स्तंत्रता के बाद भारत में लगभग चार दशकों तक न्यायपालिका ने समय-समय पर न्यूनतम मजदूरी के अधिकार को संरक्षित करने की पहल की। 1957 में भारतीय श्रम सम्मेलन की त्रिपक्षीय समिति की रिपोर्ट को तवज्जो देते हुये सर्वोच्च न्यायालय ने तत्कालीन परिस्थितियों पर चिंता व्यक्त की और कहा कि नयूनतम मजदूरी तय करते समय कुछ बिन्दुओं पर संवेदनषीलता के साथ विचार किया जाना चाहिये –

1)   एक मानक परिवार में सदस्यों के रूप में महिलाओं, बच्चों और किशोर वर्ग को शामिल माना जाना चाहिए।
2)   न्यूनतम भोजन की आवश्यकता को तय करते समय कैलोरी ऊर्जा को आधार माना जाना चाहिये।
3)   कपड़े की आवश्यकता को भी इसमें शामिल करें और परिवार की जरूरत के तहत 72 गज कपड़ा प्रति परिवार का मानक माना जाये।
4)   आवास के लिये औद्योगिक आवास योजना के तहत न्यूनतम क्षेत्र के किराये की राशि को भी न्यूनतम मजदूरी में शामिल किया जाये और
5)   ईंधन, रोशनी और अन्य खर्चो के लिये न्यूनतम मजदूरी का 20 प्रतिशत हिस्सा रखा जाये।

अपने इसी फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि नियोजकों को हर परिस्थिति में मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी का भुगतान करना चाहिये, यदि वे ऐसा नहीं करते हैं तो उन्हें अपना व्यवसाय बंद कर देना चाहिये। भारत में न्यूनतम मजदूरी कानून को एक संवैधानिक अधिकार सुनिश्चित करने का जरिया माना गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने पीयूसीआर बनाम भारतीय संघ के एक मामले में न्यूनतम मजदूरी के भुगतान न किये जाने को बेगार के बराबर माना है और उल्लेखनीय है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद-23 के तहत इस पर रोक है। यह कानून व्यावहारिक प्रक्रिया में संविधान के अनुच्छेद-32 एवं अनुच्छेद-226 की परिधि में आ जाता है, जिनमें व्यक्ति के मूल अधिकारों की रक्षा के बारे में प्रावधान किये गये हैं। पहले न्यूनतम मजदूरी तय करने के लिये तय करने के लिए किये गये चार आधारों में सर्वोच्च न्यायालय ने बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम् भारतीय संघ (1984) के मामले में पाँचवा पक्ष जोड़ा। जिसमें यह तय किया गया कि षिक्षा-स्वास्थ्य की आवष्यकताओं, मनोरंजन, सामाकि रीति-रिवाजों एवं त्यौहारों में शामिल होने के लिये होने वाले खर्च को भी इसमें शामिल किया जाये जो न्यूनतम मजदूरी का 25 प्रतिषत है।

भारतीय न्यायिक व्यवस्था ने संविधान की जन कल्याणकारी राज्य की भावना को मूर्त रूप देने के लिये कई महत्वपूर्ण कदम उठाये, परन्तु आज यह माना जाता है कि न्यूनतम मजदूरी कानून का पालन नहीं किया जाना चाहिये क्योंकि इसमें लागत बढ़ती है और लाभ-उत्पादन कम होता है। अब मजदूरों को दिन भर के श्रम के बदले न्यूनतम मजदूरी नहीं मिलती है, बल्कि न्यूनतम मजदूरी उन्हें तभी मिलती है जब वे सरकार के विचारक तकनीकी विषेषकों द्वारा तय किये गये काम के लक्ष्य को पूर्ण करें। जैसे उन्हें दिनभर में 100 घनफीट की खुदाई कर मिट्टी को एक निश्चित दूरी तक फेंकने पर ही न्यूनतम मजदूरी मिलती है।

इसी तरह एक ओर तो संविधान में दर्ज मूलभूत अधिकार यह कहते हैं कि देश में सबको समानता का अधिकार है और समाज मजदूरी पाने के अधिकार हैं परन्तु 1 जनवरी 2009 को भारत सरकार द्वारा जारी नोटीफिकेशन  में हर राज्य के लिये अलग-अलग मजदूरी के सिद्धांत को मान्यता दे दी गई। एक राज्य में न्यूनतम मजदूरी 70 रूपये है तो दूसरे राज्य में 91 रूपये और किसी अन्य राज्य में 141 रूपये। एक मायने में भांति-भांति के तरीकों से भारत में मजदूरों के न्यूनतम मजदूरी और समानता के अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है। व्यवस्था अब केवल मौन नहीं है बल्कि व्यवस्था इस शोषण में शामिल है और बाजार के लिये अग्रज की भूमिका निभा रही है।

 

(‘मीडिया फॉर राइट्स’ से साभार)